बिहार में कुर्मी समाज की हकीकत
कृष्ण देव सिंह ( के ड़ी सिंह)
पिछले दिनों मैंने कुर्मी जाति/समाज पर मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश तथा बिहार के सन्दर्भ में तीन - चार आलेख लिखा था । इसकी व्यापक प्रतिक्रिया सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों में हुआ। मुक्षपर व्यक्तिगत तौर पर उपमा और अलंकार का प्रयोग भी हुए तो मेरा उत्साहवर्द्धन करने वालों की भी कमी नही रहा । खैर ! आज एक आलेख घुमता -घामता(मूल लेखक का नाम नहीहोने के कारण उनका नाम नहीं लिख पाने का दुख है ) मेरे फेसबुक पर आया I इसको पढ़कर मुक्षे बिहार के मुख्य मंत्री श्री नीतीश कुमार को केन्द्र में रखकर पिछले दिनों मेरे द्वारा लिखा गया आलेख याद आ गया Iइसमे हमने लोकसभा में जदयू प्रत्यासियों का उल्लेख करते हुए लिखा था कि किस तरह नीतीश जी ने मुख्यघारा के कुर्मियों की उपेक्षा करके उपधारा वालों को न केवल प्रत्यासी बनाया। वाल्कि उन्हें जीता भी लाये और बिहार में कुर्मी जाति की जनसंख्या में इजाफा करके उसे लगभग 15% पर पहुंचा दिया T मेरे ३स. दावे का उपहास उड़ाने वालों की बड़ी भारी संख्या प्रकट हुई । सोचा इसका उत्तर किसी अवसर पर दुगा कि किस तरह मुख्य धारा की कुर्मी समाज अपने में छोटे - छोटे परन्तु महत्वपूर्ण उपजातियों / फिरकों को अपने में समाहित करता हुआ मंथर गति से समाज सुधार करता हुआ आगे वगैर किसी शोर - शरावें के वढ़ता जा रहा है । खैर!
माना जाता है कि ओबीसी वर्ग में कुर्मी समाज पढ़ाई-लिखाई के मामला में सबसे आगे रहा है. बातचीत में कई साथी यहाँ तक कह देते है कि आपलोगों को ओबीसी में रहना ही नहीं चाहिए. जबकि हकीकत इसके उलट है. हमारे कई साथियों का मानना है कि नालंदा और पटना के कुर्मी समाज ने जरुर सिविल सेवा, इंजीनियरिंग, मेडिकल इत्यादि क्षेत्रों में अपेक्षित प्रगति की है. लेकिन मेरा मानना है कि बौद्धिक जमात और सिविल सोसाइटी में अभी भी यह समाज काफी पीछे है. नतीजा यह हुआ है कि राजनीतिक रूप से इस समाज को कमजोर करने के प्रत्येक कोशिशों को जबाब देने में इसके नेता बुरी तरह अक्षम साबित हुए है. मसलन जब भी नीतीश कुमार को जातिगत रूप से संख्या बल में अत्यंत ही कम होने को लेकर निशाना साधा जाता है तब भी कोई भी व्यक्ति जवाब देने के लिए भले ही सामने नहीं आता हो परन्तु उसके अन्दर ही अन्दर कुछ न कुछ पकता रहता है और अवसर आने पर उसकी भरपुर अभिव्यक्ति / प्रतिक्रिया होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो सामाजिक अध्ययन पर चर्चा का अभाव भी एक मायने रखता है. परन्तु इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि अन्दर ही अन्दर ऐसा कुछ पक रहा है जो उन्हें अपने हक और अधिकारों का प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है।
यह कहना गलत है कि इसी बौद्धिक दरिद्रता के कारण कालांतर में हुए वर्ग विभेद को रोकने में कभी भी इस समाज ने रूचि नहीं दिखाई है. जबकि मेरा दावा है कि बिहार में किसी भी प्रभावशाली जाति से कुर्मियों की आबादी मुकाबले के लिहाज से लगभग बराबरी का है. कई साथियों से विमर्श के आधार पर कह सकते है कि कुर्मी समाज के पास तमाम दस्तावेजों के आधार पर इस बात प्रमाणित करने की क्षमता है.
मसलन सुपौल और सहरसा समेत अन्य भागों में कुर्मी समाज के एक हिस्से को सरकारी दस्तावेजों में अमात कहा जाता है. जबकि अमात कोई जाति नहीं है. यह शब्द अमात्य का अपभ्रंश है. अमात्य मध्यकालीन भारत में वित मामलों को देखने वाले अधिकारी का पदनाम होता था. जबकि मगध साम्राज्य के नन्द वंश में अमात्यों की भूमिका सुरक्षा अधिकारी की थी. सहरसा से तालुक्क रखने वाले साथी पुष्कर आनंद कहते है कि 1931 के पहले तक इस समाज को दस्तावेजों में कुर्मी के नाम से ही लिखा जाता था. अभी भी इनसे वैवाहिक रिश्ते कुर्मी समाज के अन्य सभी वर्गों के साथ भारी पैमाने पर बिना भेद किए होते रहे है. यदि कोई रिश्ता नहीं होता है तो इसका आधार आर्थिक या अन्य कारण ही होता है, न कि जातिगत पहचान के कारण. बातचीत में अमात समाज के लोग खुद को कुर्मी ही कहते है. लेकिन यदि सरकारी दस्तावेजों में इन्हें किसी पद के नाम पर इनकी जाति का सृजन कर दिया गया है तो क्या कर सकते है.
इसी तरह सुपौल सहरसा या पूर्णिया समेत अन्य भागों में कैवर्त-किओट कुर्मी समाज के लोग कौन है ? ये कुर्मी है।इनके भी रिश्ते कुर्मी समाज के सभी वर्गों में होते रहे है. लेकिन इन्हें सरकारी नाम कैवर्त-किओट दे दिया गया है. ये भी अति पिछड़े वर्ग में है. सरकारी दस्तावेजों में इनकी जाति का नाम कैवर्त 1931 के बाद से ही शुरू हुआ है. ये तमाम लोग राजनीतिक रूप से भी वहीँ खड़े रहे है जहाँ कुर्मी समाज का अन्य वर्ग खड़ा रहा है.
सनद रहे कि 1825 से 1940 तक इन दोनों वर्गों को पूर्णिया के गढ़ बनली और दरभंगा महाराज घराने से हासिल हुए भूमि से जुड़े कागजातों में जाति का नाम कुर्मी ही लिखा गया है.
गंगा के किनारे भाग में कृषि करने वाले कुर्मी समाज को गंगोता कुर्मी कहा जाता है. यह वर्ग भागलपुर जिले में बड़ी राजनीतिक ताकत है. इसे भी अति पिछड़ी जाति का दर्जा प्राप्त है.
शिवहर इलाके में चनउ कुर्मी समाज को चनउ के नाम से सर्टिफिकेट जारी किया जाता है. लेकिन इन्हें उतर प्रदेश में कुर्मी के नाम से ही सर्टिफिकेट जारी होता है.
बड़े-बड़े समाजविज्ञानी और राजनीति के पंडित भी नीतीश कुमार पर व्यक्तिगत निशाना साधने और कमतर आंकने के लिए बिना सोचे समझे कुर्मी समाज की आबादी 1 से 2 प्रतिशत बताते रहे है. जबकि उपरोक्त तमाम तथ्यों का आकलन किया जाए तो कुर्मी समाज की आबादी 12 प्रतिशत से भी अधिक है. इस समाज में कम से कम पचास विधानसभा जितने की ताकत है. नीतीश कुमार के राजनीतिक उत्कर्ष की भेंट में पूरा कुर्मी समाज अपनी विधानसभा की सीटों में कम भागीदारी के रूप में चुकाता रहा है. जिन बुद्धिजीवियों को नीतीश जातिगत आधार में कमजोर या अबूझ लगते है वे शायद अब समझ जायेंगे नीतीश की असली ताकत का रहस्य कहाँ है. हालाँकि कहीं न कहीं यह बात की चर्चा होना कि कुर्मी जाति की संख्या बिहार में अपेक्षित रूप से कम है की वजह से नीतीश कुमार की सकारात्मक छवि निर्माण में बड़ी भूमिका रही है. हालांकि अब जब कुर्मी समाज के भावी राजनीतिक युग के शुरुआत होने का वक्त है ऐसे में इसका असलियत सामने आ जाना ही श्रेयस्कर होगा. 1
एक साथी बताते है कि मधुबनी और झंझारपुल इलाके के राजनीतिक प्रभाव वाले दो धानुक कुर्मी परिवार के लोग हर हाल में कुर्मियों में वर्ग विभेद देखना चाहते है. यही कारण है कि इन दो जिलों में वर्ग विभेद बहुत अधिक है. इसका कारण यह है कि इनकी दुकानदारी वर्ग विभेद के नाम पर ही चलती है. इनमे से एक राजद के उपाध्यक्ष है. दूसरे शख्स एक भूतपूर्व राज्यपाल के घराने से है. धानुक कुर्मी समाज के एक युवा साथी बताते है कि कैसे मंगनीलाल मंडल भड़क कर कहते है कि नहीं हम लोग कुर्मियों से अलग है. जबकि इनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि यदि अलग है तो कुर्मियों से वैवाहिक संबंध भारी पैमाने पर क्यों होता है.
दूसरे के बारे में इस बात का गवाह हूँ कि अपने विधानसभा का टिकट सुनिश्चित करने के लिए किस प्रकार से कुर्मी संगठन में कुर्मी के रूप में ही पैठ बनाने के लिए कसरत करते है. भाई अपनी दुकानदारी चलाने के लिए कुर्मी समाज में विभेद करोगे और जब मर्जी तब कुर्मी कहलाओगे भी? यह नहीं चलेगा. तमाम युवा साथी इन दोहरे चरित्र वाले को पहचाने...और बौद्धिक तरीके से इन्हें नंगा कर दें. एकता में ही बल है., अन्यथा वर्ग विभेद करेंगे तो प्रत्येक जातियों के अंदर दर्जनों विभाजन है. लेकिन विभाजन की दरार सिर्फ कुर्मियों में ही दिखाई देती है. इसी असफलता के कारण कहा जाता हैकि कुर्मी समाज बौद्धिक रूप से दरिद्रता का शिकार है.
हलांकि कुर्मी समाज की कमजोरी यह है कि कभी भी खुद को ‘आइडेंटिटी प्राउड’ से नहीं जोड़ा. हालांकि कई मायने में यह उदारता ही सफलता की कुंजी भी है. शायद यही वह कारण है कि कुर्मी समाज किसी भी अन्य जातियों के साथ सहज रूप से सामाजिक और राजनीतिक अस्तित्व बना लेता है. नालंदा और पटना को कुर्मी बहुल जिला माना जाता रहा है. लेकिन कभी भी सिर्फ ‘जातीय प्रभाव’ के कारण किसी अन्य समाज को किसी कुर्मी से दिक्कत नहीं हुआ है.कहीं-कहीं व्यक्तिगत रंजिश हो तो यह अपवाद है. पिछले साल कुर्मी बहुल जिला नालंदा में ही सताधारी दल के एक कुर्मी विधायक को किसी यादव टोले में बंधक बना लिया गया था. किसी कुर्मी ने कोई प्रतिकार नहीं किया. यह अच्छी बात है. हर मसले को जातीय रंग देना ठीक नहीं है, अन्यथा अन्य समाज हमें घृणा की नजर से देखेगा. लेकिन मधेपुरा में किसी यादव विधायक को अन्य समाज द्वारा बंधक बना लेने की कल्पना नहीं किया जा सकता है. शायद यहीं ताकत भी कहीं-कहीं यादवों की राजनीतिक कमजोरी साबित हो जाती है.
उपरोक्त तर्कों का आशय यह है कि यदि भविष्य में अपने राजनीतिक और सामाजिक अस्तित्व को महत्वपूर्ण बनाए रखना है तो जातिगत पहचान पर काम करना ही होगा।इसके लिए यह जरुरी है कि सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में इस बात का ख्याल रखे कि जहाँ-जहाँ वर्ग विभाजन की लकीरे गहरी होती जा रही है, वहां-वहां मरहम लगाने की कोशिश करे.. मसलन हम लोगों ने अपने कार्यक्रमों के पोस्टर में फणीश्वरनाथ रेणु और शहीद रामफल मंडल को डालने की शुरुआत की है... अभी बहुत कुछ करना बाकी है.. हम इस वर्ग विभाजन को रोकने के लिए किसी भी हद तक जायेंगे और सफल होंगे कयोंकि ईमानदारी से की गई कोशिश सदैव कामयाब होती है.
हम जानते है कि हमें असफल साबित करने के लिए कुछ गद्दीदार जिनकी दुकानदारी वर्ग-विभेद करने करने से ही चलती है ये अपने कार्यक्रमों की प्रस्तुति ही ऐसे करेंगे जिसका पहला संदेश उभर कर सामने इस रूप में आएगा कि दोनों-तीनों वर्ग अलग है और बतौर गद्दीदार ये एक करने की कोशिश कर रहे है. जबकि हकीकत यह है कि ये अपना उल्लू सीधा करने के लिए समाज को तोड़ रहे है. ये आपको चुनौती दे रहे है कि आप अपने जाति को विभेद करने से बचा लो.. ।याद रखना होगा कि जातिगत मजबूती नहीं हो तो जमात का जुटना असंभव है.( बुधवार समाचार)
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