नियोग: वंश वृद्धि के उद्येश्य
से प्रचलित प्रथा का अन्त
*बुघवार*स्ट्राइकर
नियोग पौराणिककाल की प्रथा / नियम है जिसका उद्येश्य वंश वृद्धि है लेकिन आघुनिककाल यूतो नियोग प्रथा समाप्त / अन्त हो चुका है क्योंक्ति चिकित्साजगत ने इसका सम्मानित व वैद्यानिक विकल्प खोज लिया है।पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर या पति की अकाल मृत्यु की अवस्था में ऐसा उपाय है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर अथवा सम्गोत्री से गर्भाधान करा सकती है। यदि पति जीवित है तो वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। इसके विपरीत आचरण प्रायश्चित् के भागी होते हैं।पौराणिक प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए।
प्रथा के नियम
१. कोई भी महिला इस प्रथा का पालन केवल संतान प्राप्ति के लिए करेगी न कि आनंद के लिए।
२. नियुक्त पुरुष केवल धर्म के पालन के लिए इस प्रथा को निभाएगा। उसका धर्म मात्र यही होगा कि वह उस औरत को संतान प्राप्ति करने में मदद कर रहा है।
३. इस प्रथा से जन्मा बच्चा वैध होगा और विधिक रूप से बच्चा पति-पत्नी का होगा, नियुक्त व्यक्ति का नहीं।
४. नियुक्त पुरुष उस बच्चे के पिता होने का अधिकार नहीं मांगेगा और भविष्य में बच्चे से कोई रिश्ता नहीं रखेगा।
५. इस प्रथा का दुरूपयोग न हो, इसलिए पुरुष अपने जीवन काल में केवल तीन बार नियोग का पालन कर सकता है।
६. इस कर्म को धर्म का पालन समझा जायेगा और इस कर्म को करते समय नियुक्त पुरुष और पत्नी के मन में केवल धर्म ही होना चाहिए, वासना और भोग-विलास नहीं। नियुक्त पुरुष धर्म और भगवान के नाम पर यह कर्म करेगा और पत्नी इसका पालन केवल अपने और अपने पति के लिए संतान पाने के लिए करेगी।
७. नियोग में शरीर पर घी का लेप लगा देते हैं ताकि पत्नी और नियुक्त पुरुष के मन में वासना जागृत न हो।
`नियोग´ की व्यवस्था
हिन्दू धर्म में विधवा औरत और विधुर मर्द को अपने जीवन साथी की मौत के बाद पुनर्विवाह करने से वेदों के आधार पर रोक और बिना दोबारा विवाह किये ही दोनों को `नियोग´ द्वारा सन्तान उत्पन्न करने की व्यवस्था है। एक विधवा स्त्री बच्चे पैदा करने के लिए `नियोग´ कर सकती है और ऐसे ही एक विधुर मर्द भी `नियोग´ कर सकता है। बल्कि यदि पति बच्चा पैदा करने के लायक़ न हो तो पत्नि अपने पति की इजाज़त से उसके जीते जी भी अन्य पुरूष से `नियोग´ कर सकती है। लेकिन आघुनिक काल में विधवा विवाह और विधुर विवाह मान्य ब बैद्यानिक है।हिन्दू धर्म में व्यापक सुघार हो चुका है तथा सुधार का प्रयास जारी हैा
`नियोग´ की पौराणिक व्यवस्था विशेष काल के लिए थी, सदा के लिए नहीं थी । ईश्वर की ओर से सदा के लिए किसी अन्य व्यवस्था का भेजा जाना अभीष्ट था।लेकिन आजइसका सीधा सा हल है पुनर्विवाह की व्यवस्था।केवल पुनर्विवाह के द्वारा ही विधवा और विधुर दोनों की समस्या का सम्मानजनक हल संभव है।
नियोग और धर्म ग्रन्थ
नियोग का अर्थ – शास्त्रों में पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर या पति की अकाल मृत्यु की अवस्था में ऐसा नियमबद्ध उपाय है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर अथवा सम्गोत्री से गर्भाधान करा सकती है। यदि पति जीवित है तो वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। इसके विपरीत आचरण राजदंड प्रायश्चित् के भागी होते हैं। प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए।
नियोग धर्म हैं?
जिस किसी भी आस्तिक व्यक्ति ने वैदिक सिद्धान्तों का व्यापक अध्ययन किया है वह कर्म को तीन प्रकार का मानता है।
1. धर्म 2. अधर्म, 3. आपद्धर्म।
1. धर्म – वह सब कर्म जिनके करने से पुण्य और जिनके न करने से पाप होता है। जैसे सन्ध्या (सुबह शाम परमात्मा का ध्यान स्मरण) करना, सुपात्र को दान देना, वाणी से सत्य, प्रिय और पहितकारी बोलना, सुख दुःख और हानि लाभ में समान रहना आदि।
2. अधर्म- उन कर्मो का नाम है जिनके करने से पाप और जिनके न करने से पुण्य होता है जैसे शराब पीना, जुआ खेलना, चोरी, डकैती करना, ठगना, गाली देना, अपमान करना, निरापराध को दण्ड देना आदि।
3 .आपद्धर्म – वे सभी कर्म जिनको सामान्य स्थितियों में करना अच्छा नहीं कहा जाता परन्तु जिनको आपदा अथवा संकट में करना पाप कर्म नहीं कहलाता हैं। जैसे शल्य चिकित्सक द्वारा प्राण रक्षा के लिए मनुष्य के शरीर पर चाकू चलाना, देश कि सीमा पर शत्रु के प्राणों का हरण करना, जंगल में नरभक्षी शेर का शिकार करना, सुनसान द्वीप पर प्राण रक्षा के लिये माँस आदि ग्रहण करना आदि।
विवाह धर्म का अंग है, व्याभिचार अधर्म का अंग है ठीक वैसे ही नियोग आपद्धर्म का अंग है।
नियोग का मूल उद्देश्य
एक साधारण से प्रश्न पर विचार करें। यदि आपसे पूछा जाए कि आप रोटी, चावल, दाल, सब्जी, दूध, दही आदि कब खाते हैं तो आप कहेंगे “प्रतिदिन” । अब यदि आप से पूछा जाए कि कुनैन आप कब खाते हैं तो आप कहेंगे कि “केवल मलेरिया में” । क्या कड़वी कुनैन भी खाने की चीज है । परन्तु मलेरिया में हम न खाने वाली वस्तु को भी खाते हैं ताकि हमारी जान बच जाए। जैसे रोटी चावल आदि सामान्य जीवन का अंग है ठीक इसी तरह विवाह भी सामान्य जीवन का अंग है । जैसे न खाने वाली कुनैन भी आपत्ति में खाना उचित होता है इसी तरह सामान्य जीवन का अंग न होते हुए भी आपत्ति काल में नियोग सही होता है।
सभी आक्षेपकों ने नियोग को अनैतिक कहा और इसकी निन्दा की। परन्तु किसी ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि नियोग मूलतः समाज व्यवस्था का सन्तुलन रखने और व्याभिचार को बचाने के लिए ही एक आपद्धर्म है।
सामन्य रूप से संतान उत्पन्न होने पर भी नियोग की जरूरत नहीं है । जैसे कुछ परिस्थितियों मे दवा के बिना शरीर मर जाता है या स्थायी रूप से विकृत /अक्षम हो जाता है ।जैसे चिकित्सा के कुछ नियम हैं।वैसे नियोग के भी कुछ नियम हैं । जैसे बिना नियम के दवाई लाभ के स्थान पर हानि करती है ।वैसे ही बिना नियम पालन के नियोग समाज को हानि पहुंचाता है।
नियोग का केवल और केवल एक ही प्रयोजन हैं असक्षम व्यक्ति के लिए संतान उतपन्न करने के लिए, विधवा अथवा जिसका पति उपलब्ध न हो उसे संतान उत्पन्न करने के लिए ।जिससे उसका जीवन सुचारु प्रकार से व्यतीत हो सके।समाज में मुक्त सम्बन्ध पर लगाम लगाकर, उसे नियम बद्ध कर व्यभिचार को बढ़ने से रोकने के लिए।
नियोग और व्याभिचार में अन्तर
जैसे बिना विवाहितों का व्याभिचार होता है वैसे बिना नियुक्तों का व्याभिचार कहाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जैसे नियम से विवाह होने पर व्याभिचार न कहावेगा तो नियमपूर्वक नियोग होने से व्याभिचार न कहावेगा ।
फिर भी बहुत से लोग आलोचना करते हुए कहते हैं कि व्याभिचार और नियोग एक समान हैं। दोनों में कोइ अन्तर नहीं है। इसलिए नियोग भी पाप और अधर्म है। परन्तु जब एक शल्य चिकित्सक किसी रोगी का कोई अंग काटता है तो वह नियम से करता है । भले ही वह रोगी को चोट पहुंचा रहा है ।परन्तु वह यह प्रयोग नियम और चिकित्सा विधि के अनुसार रोग़ी के हित के लिए करता है। इसी प्रकार व्याभिचार और वेश्यागमन का कोइ नियम नहीं है और समाज के लिए हानिकारक है। परन्तु नियोग विधि और नियमों से बंधा हुआ है।
महर्षि दयानन्द के विचार
ॠग्वेदादि भाष्य भूमिका के नियोग प्रकरण में महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं –
“इसी प्रकार से विधवा और पुरूष तुम दोनो आपत्काल में धर्म करके सन्तान उत्पत्ति करो और उत्तम-उत्तम व्यवहारों को सिद्ध करते जाओ। गर्भ हत्या या व्याभिचार कभी मत करो। किन्तु नियोग ही कर लो। यही व्यवस्था सबसे उत्तम है।”
इस वाक्य से अर्थ है कि
-1. नियोग आपद्धर्म है क्योंकि नियोग केवल आपत्काल मे किया जाता है ।
2. व्याभिचार और गर्भपात अधर्म/महापाप है इसलिए व्याभिचार और गर्भपात नहीं करना चाहिए।
3. नियोग व्यभिचार और गर्भपात जैसे महापापों से बचने का उपाय है।
नियोग का प्रयोग काल
महाभारत/पुराण/स्मृति में नियोग के प्रमाण भरे पड़े है ।
महाभारत में व्यासजी का काशिराज की पुत्री अम्बालिका से नियोग- महाभारत आदि पर्व अ 106/6
वन में बारिचर ने युधिस्टर से कहा- में तेरा धर्म नामक पिता- उत्पन्न करने वाला जनक हूँ- महाभारत वन पर्व
कोई गुणवान ब्राह्मण धन देकर बुलाया जाये जो विचित्र वीर्य की स्त्रियों में संतान उत्पन्न करे- महाभारत आदि पर्व 104/2
उत्तम देवर से आपातकाल में पुरुष पुत्र की इच्छा करते हैं- महाभारत आदि पर्व 120/26
परशुराम द्वारा लोक के क्षत्रिय रहित होने पर वेदज्ञ ब्राह्मणों ने क्षत्रानियों में संतान उत्पन्न की- महाभारत आदि पर्व 103/10
पांडु कुंती से- हे कल्याणी अब तू किसी बड़े ब्राह्मण से संतान उत्पन्न करने का प्रयत्न कर- महाभारत आदि पर्व 120/28
पुराणों में नियोग ( पुराणों को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता किंतु प्राचीन शास्त्रों से देखकर कुछ ऐतिहासिक बातें भी इनमें ब्राह्मणों ने लिखी है)
किसी कुलीन ब्राह्मण को बुलाकर पत्नी का नियोग करा दो, इनमे कोई दोष नहीं हैं- देवी भगवत 1/20/6/41
व्यास जी के तेज से में भस्म हो जाऊगी इसलिए शरीर से चन्दन लपेटकर भोग कराया- देवी भगवत 1/20/65/41
भीष्म जी ने व्यास से कहा माता का वचन मानकर , हे व्यास सुख पूर्वक परे स्त्री से संतान उत्पत्ति के लिए विहार कर- देवी भागवत 6/24/46
पति के मरने पर देवर को दे- देवर के आभाव में इच्छा अनुसार देवे – अग्नि पुराण अध्याय 154
राजा विशाप ने स्त्री का सुख प्रजा के लिए त्याग दिया। वशिष्ट ने नियोग से मद्यंती में संतान उत्पन्न की- विष्णु पुराण 4/4/69
वह तू केसरी का पुत्र क्षेत्रज नियोग से उत्पन्न बड़ा पराकर्मी – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/28
मरुत ने अंजना से नियोग कर हनुमान को उत्पन्न किया – वाल्मीकि रामायण किष कांड 66/15
राम द्वारा बाली के मारे जाने पर उसकी पत्नी तारा ने सुग्रीव से संग किया – गरुड़ पुराण उतर खंड 2/52
मनुस्मृति के प्रमाण :आपातकाल में नियोग भी गौण हैं- मनु 9/58
नियोग संतान के लोभ के लिए ही किया जाना चाहिए- ब्राह्मण सर्वस्व पृष्ट 233
(देवर अर्थात द्वितीय वर) आज भी प्रचलित है।
यदि राजा बीमार या बृद्ध हो तो अपने मातृकुल तथा किसी अन्य गुणवान सामंत से अपनी भार्या में नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न करा ले- कौटिलीय शास्त्र 1/17/52
आधुनिक समाज में नियोग
आजकल नियोग को sperm donation अर्थात वीर्य दान कहा जाता हैं। यह मुख्य रूप से उन दम्पत्तियों द्वारा प्रयोग किया जाता हैं जिनमें पुरुष संतान उत्पन्न करने में असक्षम होता हैं।चिकित्सकों द्वारा उत्तम कोटि का वीर्य महिला के शरीर में स्थापित किया जाता हैं जिससे उसे संतान हो जाये।मुख्य रूप से भाव वही हैं केवल माध्यम अलग हैं।
नियोग के मुख्य प्रयोजन को समझे बिना व्यर्थ के आक्षेप करना मूर्खता हैं । अभी भी अगर कोई इसी प्रकार से अनर्गल प्रलाप करना चाहता हैं तो वह सबसे बड़ा मुर्ख हैं। कुछ अज्ञानी लोग स्वामी दयानंद व वैदिक शास्त्रों पर नियोग विषय को लेकर आक्षेप करते है। ऐसे लोगों का दोष केवल इतना ही हैं कि नियोग के विषय में उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं हैं ।
*बुघवार बहुमाध्यम तंत्र